लाता है होली अनेको संदेश (भाग-2)

लाता है होली अनेको संदेश (भाग-2)

होली पर्व की दिव्यता का कुछ वर्णन आप सभी के समक्ष प्रथम भाग में प्रस्तुत किया था...अब आप सभी पढ़ें इस लेख का दूसरा व अंतिम भाग...
एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार कंस को एक भविष्यवाणी सुनाई दी जिससे ज्ञात हुआ कि कंस को मारने वाला गोकुल में जन्म ले चुका है। इस भविष्यवाणी से व्याकुल कंस ने गोकुल में जन्में सारे बच्चों की हत्या करने की एक योजना बनाई। इस योजना के तहत कंस ने पूतना नामक राक्षसी को आमंत्रित किया और कहा, ''तुममे एक विशेष शक्ति है कि तुम कोई भी सुंदर रूप बनाकर महिलाओं में आसानी से घुलमिल सकती हो। अतः तुम गोकुल जाओ और धोखे से स्तनपान कराकर शिशुओं को विषपान कराओ। किसी तरह मुझे सारे शिशु मृत चाहिए। अनेक शिशु मृत्यु को प्राप्त हुए लेकिन जब पूतना श्रीकृष्ण के सामने उपस्थित हुई तो श्रीकृष्ण ने पूतना को पहचान कर उसका अस्तित्व ही समाप्त कर दिया। यह दिन फाल्गुन मास की पूर्णिमा का था। अतः पूतना वध होने पर सभी ने एक-दूसरे पर पुष्प वर्षा कर खुशियों से होली उत्सव मनाया।
एक प्रचलित कथा के अनुसार,  होलिकोत्सव, गोपियों और श्रीकृष्ण के 'रास नृत्य' से भी जुड़ा है जिसमें वसंत के सुंदर मौसम में सभी एक-दूसरे पर पुष्प की वर्षा करते हैं।
एक मान्यता यह भी है कि एक बार भगवान शंकर ध्यानमग्न थे और किसी विशेष प्रयोजन हेतु कामदेव ने उनका ध्यान भंग करने के लिए उनपर पुष्पबाण चलाया। पुष्पबाण के स्पर्श करते ही उनका ध्यान भंग हो गया और क्रोधित हो उठे। तब भगवान शिव जी ने अपने तीसरे नेत्र के तेज से कामदेव जलाकर भस्म कर दिया। कामदेव के भस्म हो जाने पर उनकी पत्नी रति विलाप करने लगी और भगवान शिव जी से विनय-प्रार्थना कर कामदेव को पुनर्जीवित कराया। यह दिन भी फाल्गुन मास की पूर्णिमा का था। आज भी रति के विलाप को लोक-संगीत के रूप में गाया जाता है। अग्नि में चंदन की लकड़ी की आहुति कर कामदेव को भस्म के दौरान हुई पीड़ा से बचाने का प्रचलन है और कामदेव के जीवित होने पर होली उत्सव मनाया जाने लगा।
एक अन्य प्रचलित कथा का वर्णन भी पढ़ने को प्राप्त होता है- राक्षसी ढुंढी की कथा। राजा पृथु के राज्य में एक ढुंढी नामक राक्षसी का वास था। घोर तपस्या से उसे एक वरदान प्राप्त हुआ, जिसके अनुसार, वह न देवता, न मानव, न अस्त्र-शस्त्र उसे मार सकेगा और न ही इस राक्षसी पर सर्दी, गर्मी और वर्षा आदि का कोई प्रभाव होगा। उसकी एक आदत यह भी थी कि वह अबोध बालकों को खा जाती थी। किसी कारण से भगवान शिव जी द्वारा एक श्राप प्राप्त था जिसके कारण वह बच्चों की शरारतों से मुक्त नहीं थी। राजा पृथु ने अपने राजपुरोहितों के साथ ढुंढी राक्षसी के इस उत्पात से निजात पाने पर विचार-विमर्श किया तो राजपुरोहितों ने फाल्गुन मास की पूर्णिमा को उचित दिवस बताया। इसके लिए राजपुरोहितों ने एक उपाय सुझाया कि सभी बच्चों एक-एक लकड़ी और घास-फूस एकत्रित करके उसमें अग्नि जला दें और शोर मचाते हुए अग्निमंत्र की प्रदक्षिणा करें तो श्राप के कारण परेशान होकर राक्षसी मर जाएगी। सभी बच्चों ने ठीक वैसा ही किया। राक्षसी परेशान होकर इधर-उधर भागने लगी जिससे दम घुटने के कारण दम तोड़ दिया। इसी उपलक्ष में धुलेंडी, धुरिवंदन या होली का त्योहार मनाया जाने लगा।
आध्यात्मिक महत्व के रूप में यदि पढ़ें-जानें और समझें तो हमारे समक्ष होली से संबंधित अनेकों ऐतिहासिक उदाहरण मिलेंगे।
सर्वाधिक प्रचलित होलिका दहन वर्णन है जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि दोष रूपी 'होलिका' प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश करती है जिसमें 'होलिका' भस्म हो जाती है और ईश्वर की सत्यता को प्रमाणित करते भक्त प्रहलाद सुरक्षित बच जाते हैं।
दक्षिण भारत में होलिका-दहन को 'काम-दहन' के रूप में मनाया जाता है। अर्थात इस दिन बुरे कामनाओं का दहन किया जाता है। होली अग्नि का प्रज्ज्वलन करना ही क्षुद्र सांसारिक इच्छाओं का दमन करना है और आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ना है। इसके अनेको उदाहरण हैं लेकिन आवश्यकता है इन सकारात्मक पहलुओं से सर्वजन को परिचय कराने की।
होली पर्व का एक आध्यात्मिक पहलू से परिचित करता हूँ। इस दिन लोग अहंकार और शत्रुता को भुलाकर जाति-धर्म आदि की सीमाओं को पार कर जाते हैं। इंसान से इंसान के प्रेम को जागृत करती है होली। प्राचीन ग्रंथ जैसे नारद पुराण, विष्णु पुराण, कृष्ण और गोपियों का पावन प्रेम, मुगलकालीन साहित्य जैसे नूरजहाँ-शाहजहाँ की होली आदि, यह सब प्रमाण है कि होली आपसी प्रेम को जागृत करता है।
होली की छटा बिखेरती मीरा की कुछ पंक्तियां आपके लिए- 
फागुन के दिन चार रे, होली खेलो मना रे।
बिन करताल पखावज बाजे, रोम-रोम रमिकार रे।
बिन सुर ताल छत्तिसौं गावे, अनहद की झंकार रे।
होली खेलो मना रे।
एक दृष्टि परंपराओं पर यदि डालें तो पाएंगे कि इस पर्व की परंपराएं अत्यंत प्राचीन हैं और समय परिवर्तन के साथ-साथ स्वरूप और उद्देश्य में परिवर्तन भी होता रहा है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में परिवार की सुख-समृद्धि के लिए होली पर विवाहित महिलाओं द्वारा पूर्ण चाँद का दर्शन कर पूजा करने की परंपरा थी। वहीं वैदिक काल में खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में आहुति देकर प्रसाद रूप में ग्रहण करने का विधान जिसके कारण इस यज्ञ को नवोन्नैष्टि यज्ञ का जाता था। अन्न को होला कहा जाता है जिसके कारण यह पर्व होलिकोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। 
भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से हिन्दू नव वर्ष का आरंभ होता है। यह वसंत के आगमन का प्रतीक है। चैत्र मास का आरंभ भी यहीं से होता है। यह भी माना जाता है कि प्रथम पुरुष मनु का जन्म इसी दिन हुआ था। मनु के जन्मदिवस के कारण इस तिथि को मनवादि तिथि भी कहते हैं। 
एक परंपरा यह भी है कि अनेक स्थानों पर होलिका दहन में भरभेलिये जलाया जाता है। ये भरभेलिये गाय के गोबर के छोटे-छोटे उपले के रूप में होते हैं इनके बीच में छेद किया जाता है और मूँज की रस्सी में डाल कर माला बनाया जाता है। ये माला बहनें अपने भाइयों के सिर से सात बार घुमाकर होलिका की अग्नि में दहन कर देती हैं। इसकी मान्यता है कि होलिका की अग्नि में भाइयों पर लगी बुरी नजर भी जल जाती है। 
होलिका दहन के अगले दिन धूलिवंदन या होली का पर्व होता है। प्रातः सूर्य किरण दिखते ही लोग रंग, अबीर, गुलाल आदि से एक-दूसरे को सराबोर करते हुए गले-मिलते हैं। सभी बच्चे पिचकारियाँ लिए इधर-उधर रंगों की फुहार बरसाते नजर आते हैं। इस दिन अच्छे-अच्छे पकवान बनाने की परंपरा है। पकवानों में खीर, पूड़ी, सब्जी, रसमलाई, गुझिया, पापड़, चिप्स, रसमलाई आदि बनाया जाता है। इस पर्व में गुझिया का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। सभी लोग आपस में एक-दूसरे को संध्या भोजन पर आमंत्रित करते हैं और खाते-खिलाते, होली उत्सव का आनंद देर रात तक लेते रहते हैं। 
होली पर्व का उत्सव भारत में ही नहीं विदेशों में भी प्रचलित हो चुकी है। भारत के अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग तरीकों से मनाई जाती है। होली उत्सव का सर्वाधिक आकर्षक का केंद्र 'बृज की होली' है। बरसाना में होली मनाने का एक अनूठा ही अंदाज है जिसे लट्ठमार होली कहा जाता है। इसमें पुरुष, महिलाओं पर रंग डालते हैं और फिर महिलाएं उन्हें लाठियों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में 15 दिनों तक होली पर्व का उत्सव मनाया जाता है। 
जहां बृज की होली एक खास तरह के आनंद के लिए प्रसिद्ध है वहीं कुमाऊं की होली अपनी सरलता और शालीनता के लिए प्रसिद्ध है।
कुमाऊनी होली की विशेषता वहां की गायन शैली है। सुर, लय, ताल का ऐसा अद्भुत सामंजस्य सुनने को मिलता है कि आनंद ही आनंद होता है चारो ओर। कुमाउँनी होली दो प्रकार से मनाई जाती है। 'बैठक होली' और 'खड़ी होली'। यहां की होली में होने वाला शास्त्रीय गायन धम्मार पर आधारित होता है।
हरियाणा की धुलेंडी तो और भी विचित्र है। यहां पर भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की परंपरा है।
बंगाल में इस दिन को चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। जन्मोत्सव के लिए दोल यात्रा निकाली जाती है जिसमें गायन-वादन अनवरत चलता रहता है।
पंजाब में सिखों द्वारा इस दिन को होला-मोहल्ला के रूप में मनाते हैं जिसमें सभी शक्ति प्रदर्शन करते हैं। तमिलनाडु में कामदेव की प्रचलित कथा के आधार पर वसंतोत्सव मनाया जाता है। मणिपुर के लोग इस दिन 'याओसांग' पर्व के रूप में मनाते हैं। याओसांग एक नन्हीं झोपड़ी का नाम है जिसे पूर्णिमा के दिन प्रत्येक ‘नगर, ग्राम, नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाया जाता है।
जहां गुजरात के आदिवासी होली को सबसे बड़े पर्व के रूप में मनाते हैं, वहीं छत्तीसगढ़ के लोगों द्वारा लोकगीतों का प्रदर्शन एक अद्भुत परंपरा है जिसे होरी पर्व कहा जाता है।
मध्य प्रदेश राज्य के मालवा अंचल के आदिवासी क्षेत्रों में धूमधाम से 'भगोरिया' मनाया जाता है। भगोरिया होली का ही एक रूप है। 
बिहार राज्य में जो होली मनाई जाती है उसे फगुआ नाम से जाना जाता है। इसमें जमकर मौज-मस्ती, आनंद होता है। नेपाल की होली में धार्मिक व सांस्कृतिक रंग की छटा बिखरती है। इसी प्रकार अनेक देशों में बसे प्रवासियों तथा अनेक धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में श्रंगार व होली मनाने की अलग-अलग परंपराएं हैं। रचयिता ‘हर्ष’ की प्रियदर्शिका और रत्नावली, ‘कालिदास’ की कुमारसंभवम् और मालविकाग्निर्मित्रम् जैसी रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का उल्लेख है। कालिदास द्वारा रचित ऋतुसंहार में ‘वसंतोत्सव’ का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। अनेक संस्कृत कवियों ने भी वसंत की वर्षा अपने संस्कृत रचनाओं में की है। चंद्रबरदाई के प्रथम महाकाव्य ‘पृथ्वीराजरासो’ में भी इस पर्व का वर्णन मिलता है।
होली पर्व और फागुन मास को हिंदी साहित्य के दो विशेष कालों ''रीतिकाल और भक्तिकाल'' में विशेष स्थान प्राप्त है। रीतिकालीन कवि- बिहारी, धनानंद और केशव तथा भक्तिकालीन कवि- सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर एवं आदिकालीन कवि विद्यापति जैसे कवियों ने अपनी रचनाओं में होली उत्सव का जीवंत चित्रण को प्रकाश दिया है। इन महान कवियों ने एक तरफ तो नितांत लौकिक नायक-नायिकाओं के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली और वहीं दूसरी ओर श्रीकृष्ण-गोपियों के बीच होली उत्सव के वर्णन के माध्यम से सगुण साकार और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम को जागृत किया है।
मुस्लिम सम्प्रदाय का पालन करने वाले अनेक कवियों जैसे- सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह ज़पफर आदि ने भी होली पर्व पर अद्वितीय रचनाओं की रचना की जो काफी प्रचलन में रही। आधुनिक हिंदी कहानीकारों में प्रेमचंद, प्रभुजोशी, तेजेन्द्र शर्मा, ओमप्रकाश अवस्थी तथा स्वदेश राणा की क्रमशः राजा हरदोल, अलग-अलग तीलियाँ, एक बार फिर होली, होली मंगलमय हो तथा हो ली शीर्षक कहानियों में होली का अनुपम दृश्य देखने व पठन करने को प्राप्त होता है।
भारतीय फ़िल्म जगत में भी होली के दृश्यों और गीतों को बखूबी सजीव स्वरूप दिया गया है जिसमें शशि कपूर की 'उत्सव', यश चोपड़ा की 'सिलसिला', वी शंताराम की 'झनक झनक पायल बाजे' और 'नवरंग' तथा अमिताभ बच्चन की फ़िल्म 'बागवान' आदि प्रमुख हैं। भारतीय फिल्मों में विभिन्न रागों पर भी होली गीत जैसे- सिलसिला फ़िल्म के गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’, फ़िल्म नवरंग का ‘आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार’ की लोकप्रियता आज भी बहुत अधिक है। 
संगीत परंपराओं में भी होली गायन अत्यधिक प्रचलित है। शास्त्रीय संगीत हो, लोकगीत हो या फिल्मी संगीत सभी प्रचलित हैं। शास्त्रीय संगीत के कुछ विशेष रागों जैसे बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी आदि में होली के पर्व की फुहार सम्मिलित रहती है। शास्त्रीय संगीत के अंतर्गत ‘धम्मार’ का होली से संबंध बहुत गहरा है। साथ ही ‘ध्रुपद’, ‘छोटे व बड़े ख्याल’ और ‘ठुमरी’ में होली के गीतों के सुंदर बोल और संगीत सुनते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है। कथक नृत्य के साथ धमार और ठुमरी का आनंद भी होली में सराबोर करने वाला होता है। अनेक सुंदर बंदिशों में एक 'चलो गुंईयां आज खेलें होरी कन्हैया घर' अत्यधिक लोकप्रिय है। ध्रुपद में 'खेलत हरि संग सकल रंग भरी होरी सखी' गाई जाने वाली लोकप्रिय बंदिश है। उपशास्त्रीय संगीत की चैती, दादरा और ठुमरी में सुप्रसिद्ध होलियों का आनंद प्राप्त होता है। संगीत में होली की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक विशेष शैली का नाम ही ‘होली’ रखा गया है। इसके अंतर्गत अलग-अलग प्रान्तों में ‘होली’ शैली के अलग-अलग गीत सुनने को मिलते हैं। इसमें उस प्रांत के इतिहास और धार्मिक महत्व आदि का समावेश मिलता है। राजस्थान राज्य के अजमेर शहर में ख्वाना मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर विशेष होली पर्व का उत्सव होता है। 
एक प्रसिद्ध ‘होली' कुछ इस प्रकार है-
आज रंग है री मन रंग है, 
अपने महबूब के घर सा है री।
शिव शंकर जी से संबंधित ‘होली’ शैली में ‘दिगंबर खेले मसाने में होली’ जिसमें शिवजी द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन है। 
होली पर्व नव वर्ष का स्वागत का पर्व है, खुशियों को बांटने का पर्व है, उत्सव का पर्व है। यह पर्व देश-विदेश में अनेक स्वरूपों में प्रचलित तो है लेकिन वर्तमान समय का सवरूप कुछ भिन्न दिखाई पड़ता है क्योंकि अनेक लोग अज्ञानतावश  तथा कुछ अंधविश्वासों के चलते होली पर्व के पारंपरिक उत्सव का आनंद लेने से चूक जाते हैं। रंगों के इस त्योहार में प्राकृतिक रंगों और पुष्पों से होली खेलने की प्रथा को भी लोगों ने क्षति पहुंचाई जिसमें लोग रासायनिक रंगों तथा कीचड़ों आदि का प्रयोग बढ़-चढ़कर कर करने लगे हैं। इससे अराजकता को बल मिलता है साथ ही अनेकों बीमारियां भी जन्म लेती हैं। प्रकृति को ध्यान में रखते हुए होली पर्व मनाना चाहिए। रासायनिक रंगों के इस्तेमाल से बचना चाहिए। चंदन, गुलाबजल और टेसु के फूलों से बने प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग करना चाहिए। साथ ही एक विशेष बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है। ये बात है संगीत की। संगीत ऐसा न हो जिससे ध्वनि प्रदूषण को बढ़ावा मिले। वर्तमान में अनेक विद्यार्थियों की परीक्षा भी चल रही है, ध्वनि प्रदूषण से उनके अध्ययन में बाधा पड़ती है। सभी यह प्रयास करें कि होली पर शांत ध्वनि में प्रचलित पारंपरिक संगीत का आनंद लिया जाए जिससे होली उत्सव का अर्थ पूर्ण हो। इससे आनंद अनेक गुना बढ़ जायेगा। 
तो इस होली के पावन पर्व को पावन, निर्मल और शीतल रंग से सराबोर कर, पारंपरिक संगीत के साथ झूमें, गाएँ और बुराईयों पर अच्छाइयों की जीत का जश्न मनाएँ। अलग-अलग स्थानों पर प्रचलित पारंपरिक होली पर सभी देश व विदेश वासियों को होली की अनेकों शुभकामनाएँ।


- आपका कम शब्दों का लेखक
प्रमोद केसरवानी

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