शिक्षा में मजाक या मजाक में शिक्षा...

शिक्षा में मजाक या मजाक में शिक्षा…




शीर्षक को पढ़कर सोच रहे होंगे कि ये क्या लिख दिया? लेकिन ये सच है कि आज गांव के विद्यालयों में यही दो चीजें हो रही हैं। शिक्षा में मजाक और मजाक में शिक्षा चल रही है। शहरों के विद्यालयों की स्थिति के बारे में नही कह रहा हूँ क्योंकि वहां के परिवेश के मुझे अनुभव नही है। या ये भी हो सकता है कि जिन विद्यालयों के बारे में जनता हूँ, वहां का परिवेश देखकर मैं ऐसा कह रहा हूँ। बाकी पर मेरा कोई कटाक्ष नही है।
खैर, बच्चे क्या पढ़ रहे हैं, कैसे पढ़ रहे हैं लगता है कि केवल प्रबंधक जी को ही चिंता है, किसी अन्य (शिक्षक) को तो कुछ तरीका आता ही नही है पढ़ाने का। शायद इसीलिए प्रतिदिन, प्रति बेला, प्रति कक्षा में घूम-घूमकर देखते हैं कि क्या पढ़ाया जा रहा है, कैसे पढ़ाया जा रहा है, साथ में कोई न कोई कमी निकालकर 100% टोकना ही टोकना है, और तो और वहीं बच्चों के सामने|
यदि अध्यापक किताब के पैराग्राफ के अर्थ को बैठकर डेमो देते हुए बता रहा है तो कह दिया, "यहां से वहां देख लो कोई कुर्सी पर बैठा है जो आप बैठ गए, आप टेबल के ऊपर बैठकर या उसपर टिक कर खड़े होकर पढ़ाइए।"
यदि अध्यापक बच्चे की कॉपी चेक कर रहा है तो कहते हैं, "आप तो हर समय कॉपी ही चेक करते रहते हैं, कभी पढ़ा लिया करो।"
यदि अध्यापक बोर्ड पर उत्तर लिख रहे हैं या समझा रहे हैं तो कहते हैं, "इसको ऐसे नही, ऐसे पढ़ाइए, समझाइये खूब, सबको आना चाहिये सबकुछ।" और अगले दिन कहेंगे, "कॉपी पूरी नही करवा रहे हैं" अगले दिन कहेंगे, "कोर्स बहुत पीछे है" अगले दिन कहेंगे, "बच्चों को रोज 20 तक पहाड़ा लिखने का होमवर्क दीजिये और प्रतिदिन चेक कीजिये"
आप ही बताइए 6 से 10 तक के बच्चों (प्रति कक्षा औसत 75 बच्चे) को प्रतिदिन पहाड़ा चेक करने का अर्थ है 40 मिनट में से 25 मिनट गया और 15 मिनट में कोर्स भी पूरा करा दिया जाए, कॉपी भी सही तरीके से चेक कर दिया जाए, सबको सबकुछ समझ में आ जाये। साथ ही यह भी बताता चलूं कि औसतन 15% ऐसे-ऐसे विद्यार्थी जिनको बोर्ड में लिखी चीज कॉपी करना भी नही आता। यहां तक कि अपना नाम तक नही लिखना जानते।
विद्यालय के सर्वेसर्वा का हास्यास्पद भाषण जो कि प्रार्थना के बाद पूरे 1 से 12 तक की कक्षा के विद्यार्थियों के सामने अलग-अलग दिनों में अनेक बातें कही गयीं, जैसे- "ये गुरु नही गोरु हैं,... (यहां कुछ ऐसे शब्द भी हैं जो लिखने योग्य नहीं है)", "अध्यापकों से निवेदन है कि बच्चों को कोई दंड न दें", "यदि बच्चे गुंडई करें तो उनको कोई दंड न देकर विद्यालय से नाम काट दीजिये" आदि-आदि। प्रतिदिन प्रति शिक्षक अपने को सर्वेसर्वा द्वारा अपमानित महसूस करता है लेकिन फिर भी अपने दायित्वों की पूर्ति में लगा रहता है। पूरा लक्ष्य केवल अर्थ (money) जुटाने का बना दिया है। उनके पुस्तक से लेकर परिचय पत्र तक में 50% कमीशन तय करके चलते हैं।
अचानक से विद्यालय का हिंदी मीडियम से अंग्रेजी मीडियम की मान्यता यानी सिर्फ कागज में स्तर का सुधार लेकिन बच्चे अचानक कक्षा 7 में हिंदी माध्यम से pass बच्चे का कक्षा 8 में अंग्रेजी माध्यम में प्रवेश। बच्चों को जहां पहले केवल अंग्रेजी की किताब के अलावा बाकी सभी किताब हिंदी में और अब सिर्फ हिंदी को छोड़कर सभी किताब अंग्रेजी में। बच्चों के दिमाग को ये नयापन
अचानक स्वीकार्य कैसे हो?
अभिभावक तो खुश कि मेरा बच्चा अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने लगा लेकिन क्या अध्यापक और विद्यार्थी इस परिवर्तन को स्वीकार कर पाए?
बिल्कुल नही कर पाए और नतीजा बच्चे एक भी प्रश्न का अर्थ स्वयं से समझ नही
पा रहे हैं। सभी बच्चे बस गांव की भाषा में आपसी बात, यहां तक कि अध्यापक से साथ बात भी गांव की भाषा में।
और वहां के वातावरण में बस एक बड़ी शोर निकलती है वहां से- सर्वेसर्वा की हमारा विद्यालय में अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाई होती है।
खैर! फिर भी सुधार तो करना ही है, लगे रहेंगे सुधार करने में।
बाकी के माहौल की तो बात ही छोड़ दीजिए।
9 और 12 के बोर्ड रजिस्ट्रेशन की कहानी तो और भी गयी-गुजरी है। जल्द ही चर्चा करूँगा।

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