मन का विचलित होना स्वाभाविक है
मन का विचलित होना स्वाभाविक है
दुःख आएगा, यह तो तय है। यह भी सभी जानते हैं कि सौ प्रतिशत सुख नहीं हो सकता है क्योंकि हम कर्म बंधन से बंधे हैं। प्रतिक्षण ऐसा कृत्य हो जाता है जिसका सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है लेकिन हम मनुष्य हैं तो स्वाभाविक है कि जो चीज मन के अनुकूल हुई उसको ज्यादा अहमियत देते हैं चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। यह हमारे मन पर निर्भर करता है। (पिछले लेख में आपको सकारत्मक होने का एक सूत्र प्राप्त हुआ था)। कई कृत्य ऐसे भी होते हैं जिसका दूरगामी परिणाम मिलता है और हम सुख या दुख की अनुभूति करते हैं। यदि सुख की अनुभूति हुई तो खुशी और यदि दुख की अनुभूति हुई तो दुःखी। लेकिन यहां पर ही समझने वाला और संभलने वाला महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। जिस मनुष्य में दुःख को सुखपूर्वक व्यतीत करने का रहस्य पता है (पिछले लेख में यही चर्चा हुई थी) वह तो संभल जाएगा और यहां दुख की अनुभूति के बजाय यह सोचकर संतुलित हो जाएगा कि "कहीं न कहीं उस कृत्य में कुछ कमी रह गई होगी जिसका यह परिणाम प्राप्त हुआ।" लेकिन वहीं अन्य लोग दुःख में ग़मगीन हो जाएंगे या दुःख के अंधेरे में डूबकर कई महत्वपूर्ण क्षण अपने हाथ से गंवा बैठेंगे। यहां उन्हें समझने की आवश्यकता है साथ ही अपने द्वारा किया गया उस कृत्य पर आत्मचिंतन और आत्ममंथन करने की आवश्यकता है।
यही वह पड़ाव है जहां मन विचलित होता है। मन का विचलित होना स्वाभाविक भी है क्योंकि यहां पर आकर दोराहे पर खड़े होने जैसी स्थिति हो जाती है और समझ नहीं आता किधर जाएं?
जिन्हें तो यह समझ है कि "नहीं! कोई बात नहीं, फिर से प्रयास करेंगे" इसी दृढनिश्चय के साथ सही मार्ग पकड़ आगे बढ़ जाते हैं लेकिन जो यह नही समझ पाते वह या तो गलत वाला मार्ग पकड़ लेते हैं या फिर वहीं रुक जाते हैं यानी उस कार्य को वहीं छोड़ देते हैं। जो नियम के विपरीत गलत मार्ग पर गए, उनका मन सकारात्मकता से दूर होता जाएगा और नकारात्मकता को ओढ़ते हुए दुखों के सागर में डूबते चले जायेंगे। जो वहीं रुक जाते हैं वो हताश निराश होकर दुःखी मन से "छोड़ो ये नही होगा मुझसे" कहकर पुनः कुछ और शुरुवात करते हैं। फिर यहां भी मन का विचलित होना स्वाभाविक है। यह गलत नहीं है क्योंकि इनके पास सकारात्मक होने का पूरा अवसर रहता है बस कोई दिशा दिखा दे।
मन के विचलन को कभी भी नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। यह दुःख से बिल्कुल अलग है। यही वह समय होता है जब आप स्वयं को जांचते-परखते हैं। हाँ यह अवश्य होगा कि यहीं से दुःख की शुरुआत हो सकती है लेकिन जो यह सत्य जानते हैं कि सुख-दुख तो होना ही है, क्यों न इसे सुखपूर्वक ही व्यतीत किया जाए वो दुखी नही होंगे। अतः हमें प्रयास यही करना चाहिए कि परिस्थितियां तो हर क्षण बदलेंगी।
यही वह पड़ाव है जहां मन विचलित होता है। मन का विचलित होना स्वाभाविक भी है क्योंकि यहां पर आकर दोराहे पर खड़े होने जैसी स्थिति हो जाती है और समझ नहीं आता किधर जाएं?
जिन्हें तो यह समझ है कि "नहीं! कोई बात नहीं, फिर से प्रयास करेंगे" इसी दृढनिश्चय के साथ सही मार्ग पकड़ आगे बढ़ जाते हैं लेकिन जो यह नही समझ पाते वह या तो गलत वाला मार्ग पकड़ लेते हैं या फिर वहीं रुक जाते हैं यानी उस कार्य को वहीं छोड़ देते हैं। जो नियम के विपरीत गलत मार्ग पर गए, उनका मन सकारात्मकता से दूर होता जाएगा और नकारात्मकता को ओढ़ते हुए दुखों के सागर में डूबते चले जायेंगे। जो वहीं रुक जाते हैं वो हताश निराश होकर दुःखी मन से "छोड़ो ये नही होगा मुझसे" कहकर पुनः कुछ और शुरुवात करते हैं। फिर यहां भी मन का विचलित होना स्वाभाविक है। यह गलत नहीं है क्योंकि इनके पास सकारात्मक होने का पूरा अवसर रहता है बस कोई दिशा दिखा दे।
मन के विचलन को कभी भी नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। यह दुःख से बिल्कुल अलग है। यही वह समय होता है जब आप स्वयं को जांचते-परखते हैं। हाँ यह अवश्य होगा कि यहीं से दुःख की शुरुआत हो सकती है लेकिन जो यह सत्य जानते हैं कि सुख-दुख तो होना ही है, क्यों न इसे सुखपूर्वक ही व्यतीत किया जाए वो दुखी नही होंगे। अतः हमें प्रयास यही करना चाहिए कि परिस्थितियां तो हर क्षण बदलेंगी।
मन भी विचलित होगा ही होगा लेकिन उद्देश्य और सकारात्मक दिशा में विचलन नहीं होना चाहिए।
-कम शब्दों का लेखक

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