लाता है होली अनेको संदेश (भाग-1)

लाता है होली अनेको संदेश 
(भाग-1)




होली एक दिव्य पर्व है, हाँ! यह जरूर है कि इसकी दिव्यता को बनाये रखना हम सभी का परम कर्तव्य है। खासकर 'होली' एक ऐसा पर्व है जिसकी प्रतीक्षा होली के अगले दिन से ही अगली होली के लिए शुरू हो जाती है हम पूरे साल पूरी उत्सुकता के साथ इंतजार करते हैं क्योंकि...
...लाता है होली अनेको संदेश,
हर्षोल्लास का मौसम, देश हो या विदेश।
वसंत ऋतु के आगमन का संदेश,
रंगने-रंगाने और गाने-बजाने में,
भूल जाना होता है क्या ‘फेस’ क्या 'वेश'।
लाता है होली अनेको संदेश...
वास्तव में होली उत्सव का प्रारंभ फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी से ही हो जाता है और पूर्णिमा तक चलता है। इन्हीं आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है। होलिका दहन के लिए सामग्रियों को एकत्रित करने का शुभारंभ भी इसी दिन से कर दिया जाता है। इस पावन पर्व को नवसंवत्सर और वसंत आगमन के अवसर पर किए गए दिव्य यज्ञ के रूप में भी मनाते हैं। पारंपरिक रूप से होली दो दिन मनायी जाती है। प्रथम दिन यानी चतुर्दशी की रात्रि को होली पूजन किया जाता है तत्पश्चात होलिका दहन कर होली का शुभारंभ हो जाता है। होलिका दहन एक शुभ बेला पर किया जाता है। मान्यता है कि होलिका दहन के समय इसकी अग्नि में गेहूं की बालियां सेंकनी चाहिए। सच बताऊं तो इसमें हम बच्चों को और बड़ों को भी बहुत आनंद आता है। मान्यता के अनुसार बाली को अग्नि में सेंककर घर में फैलाने से धन-धान्य में वृद्धि होती है। होलिका दहन के पश्चात जो राख बचती है, वह होली-भस्म कहलाती है, इस भस्म को शरीर पर लगाना चाहिए। मान्यता यह भी है कि जली हुई होली की गर्म राख घर में समृद्धि का प्रवेश कराती है जिससे घर में शांति और प्रेम का वातावरण स्थापित होता है।
रात्रि में होलिका दहन के पश्चात प्रातः से ही धूरिवंदन त्योहार मनाया जाता है जिसे धुलेंडी और डुंडी आदि नामों से भी जाना जाता है। माना यह जाता है कि भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व 'होली' है। इस दिन की सूर्योदय की पहली किरण में ही होली के हर्षोल्लास के अहसास समाया होता है। अगले ही क्षण लोग एक-दूसरे के घर आते-जाते प्राकृतिक रंग-फूल, अबीर-गुलाल आदि डालकर होली गीत गाते-बजाते हुए उत्सव मनाना प्रारंभ कर देते हैं। प्राकृतिक रंग और फूलों से प्रत्येक प्राणी एक अद्भुत आनंद से सराबोर प्रतीत होते हैं। कब प्रातः से दोपहर हो जाती है पता ही नहीं चलता। दोपहर बाद लोग स्नान करके नए पारंपरिक वस्त्र पहनकर एक-दूसरे के यहाँ जाकर अबीर-गुलाल का तिलक करके गले लगाते और एक-दूसरे को शुभकामनाएं और बधाई संदेशों ओत-प्रोत कर ईश्वर का धन्यवाद करते हैं। आये हुए अतिथि जन अनेक तरह की मिठाइयां, गुझिया-पापड़ आदि खाते-खिलाते हैं।
ढोल-झांझ, मंजीरा, करतल, आदि की ध्वनि के साथ नृत्य, संगीत, राग और रंग इस उत्सव का अभिन्न अंग तो है ही लेकिन इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय पुष्पित-पल्लवित आनंद से सराबोर अपने दिव्य अवस्था पर पहुंच जाते हैं। इसे 'फाल्गुनी' भी कहा जाता है। इस मास की हवाएं 'वसंतोत्सव' का स्मरण कराते हैं जिसे ‘फगुई-बयार’ कहते हैं।
वाह! ऐसे समय में प्रकृति का अद्भुत वातावरण देखने व महसूस करने को मिलता है। खेतों में सरसों के खिले पीले-पीले फूल, गेहूं की इठलाती बालियां, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब हर्षोल्लास से परिपूर्ण आनंद में डूबे दिखायी दे रहे हैं। एक दिव्य वातावरण की अनुभूति होती है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार होलिका-दहन के समय हम होलिका दहन रूपी यज्ञ की पूजा करते हैं और साथ ही ‘होलिका मैया’ की जय-जयकार करते हैं क्योंकि 'होलिका' ने सभी बुराइयों, दोषों, अहंकार, दैहिक, दैविक और भौतिक तापों को लेकर अग्नि में बैठी और भस्म हो गई अर्थात हमें हमारे अंदर व आस-पास उपस्थित नकारात्मकता से मुक्ति मिली और सकारात्मकता को अपनाकर ईश्वर में लीन होने का मार्ग प्रसस्त हुआ।
कुछ अंधविश्वासों के चलते यह भी माना जाता है कि ‘महिलाओं को होलिका-दहन के दर्शन नहीं करना चाहिए।’ परंतु वास्तविकता यह नहीं है। हमें ऐसे किसी व्यर्थ के विचारों को अपने मन-मस्तिष्क में स्थान नहीं देना चाहिए। शास्त्रों में वास्तविकता निहित है और लोगों ने बिना पढ़े-जाने कही-सुनी बातों पर विश्वास कर लिया। जैसा कि श्रीगुरु जी से सुना है कि  सभी को मिलकर होलिका-दहन और होलिका पूजन के पर्व को बिना भेद-भाव के 'उत्साह और आनंद' में सराबोर होकर मनाना चाहिए क्योंकि होलिका-दहन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि बुराइयों-दोषों का दहन होता है न कि व्यक्ति विशेष से इसका कोई संबंध है।
इतिहास की दृष्टि से होली अत्यंत प्राचीन पर्व है। वसंत ऋतु के आगमन पर मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और कामोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। इतिहासकारों के अनुसार, इस पर्व का प्रचलन आर्यों में भी था। इस पर्व का वर्णन जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा ग्राह्य-सूत्र में भी मिलता है।
भविष्यपुराण के अनुसार, एक बार नारद जी ने युध्ष्ठिर से कहा- ''महाराज! फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होली है। इस दिन सभी को अभयदान देना चाहिए ताकि सारी प्रजा उल्लासपूर्वक हंसे और होली का त्योहार मनाएं। इससे पापात्मा राक्षसों का नाश होता है।'' नारद पुराण में भी इस पर्व का देखने को मिलता है।
ईसा से 300 वर्ष पूर्व विंध्य क्षेत्र और रामगढ़ स्थान पर मिले अभिलेख में भी होली पर्व का उल्लेख है।
संस्कृत साहित्य में अनेक कवियों ने वसंत ऋतु और वसंतोत्सव पर अनेक कविताओं की रचना की है। कहीं पढ़ा था कि भारत के अनेक मुस्लिम कवियों की अनेक रचनाओं में भी होली पर्व का वर्णन आता है जिससे यह ज्ञात होता है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी मनाते हैं। सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी होलिकोत्सव पर्व का वर्णन अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में किया है।
मुगलकाल में होली के किस्से का एक प्रामाणिक इतिहास है। अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली मिलन का वर्णन मिलता है। होली उत्सव मनाने का मुगलिया अंदाज शाहजहां के शासनकाल में बहुत परिवर्तित हो चुका था। ऐतिहासिक वर्णन प्राप्त होता है कि शाहजहां के जमाने में होली उत्सव को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार के नाम से जाना जाता था।
हिंदी साहित्य के मध्ययुगीन साहित्य में श्रीकृष्ण लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन देखने को मिलता है।
होली उत्सव के कुछ चित्र भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई है जो दर्शनीय है। विजय नगर की राजधानी हंपी के 16वीं शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली उत्सव का चित्र देखने को मिलता है। इस चित्र में राजकुमार-राजकुमारियों को दासियों सहित होली खेलते दर्शाया गया है। साथ ही गीत-संगीत का भी वर्णन है।
मध्यकालीन मंदिरों के भित्तिचित्रों में होली उत्सव का सजीव चित्रण किया गया है जैसे- 17वीं शताब्दी में मेवाड़ में स्थित एक कृति में महाराज और दरबारी आपस में होली खेल रहे हैं। शासक उपहार बांट रहे हैं और नृत्यांगनाएं नृत्य कर रही हैं। बीच में एक रंग का कुंड रखा गया है जिसमें होली खेली जा रही है।
होली के पर्व से जुड़ी अनेक कथा-कहानियां प्रचलित हैं। अत्यंत प्रचलित व प्रसिद्ध कथाओं में से प्रहलाद और होलिका की कथा विशेष है। विष्णु पुराण में वर्णित इस कथा के अनुसार प्रहलाद के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यपु ने तपस्या करके भगवान को प्रसन्न कर एक वरदान मांगा कि वह न तो पृथ्वी पर मरे, न आकाश में, न दिन में मरे न रात में, न घर में मरे न बाहर, न अस्त्र से मरे न शस्त्र से, न मानव उसे मार पाए और न ही पशु। यह वरदान प्राप्त होते ही वह स्वयं को ईश्वर समझने लगा और नास्तिक व निरंकुश होकर अमर मानने लगा। वह यह चाहता था कि सभी प्राणी उसे ईश्वर मानें लेकिन उनके स्वयं के पुत्र ने भगवान नारायण की प्रार्थना-आराधना नहीं छोड़ी। हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद को मारने हेतु बहुत-सी यातनाएं दीं। परंतु भगवान नारायण की प्रार्थना कर वह बच जाते। तभी उसे अपनी बहन होलिका की याद आई। क्योंकि होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था इसलिए दैत्यराज ने आदेश दिया कि होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठ जाए जिससे प्रहलाद जलकर राख हो जाएगा और होलिका सही सलामत बाहर आ जाएगी। क्योंकि होलिका ने बुराई, असत्य, बेइमानी, नकारात्मक आदि के साथ अग्नि में बैठी अतः इस कारण वरदान का प्रभाव समाप्त हो गया। होलिका अग्नि में जलकर राख हो गई और नारायण का ध्यान करते प्रहलाद सुरक्षित बच गए जिससे प्रजा में खुशी की एक लहर दौड़ गई और इसी अवसर को होली के त्योहार के रूप में मनाया जाने लगा।
एक दूसरी कथा के अनुसार, जब कंस को भविष्यवाणी द्वारा ज्ञात हुआ कि कंस को मारने वाला गोकुल में जन्म ले चुका है। इस वाणी से व्याकुल कंस ने गोकुल में जन्में सारे बच्चों की हत्या की योजना बनाई। कंस ने पूतना नामक राक्षसी को आमंत्रित किया और उससे कहा- हे पूतना, तुम्हारे अंदर किसी भी सुंदर रूप को धारण करने की शक्ति है। तू किसी सुंदर महिला का रूप बनाकर जाओ और महिलाओं में घुलमिल जाओ और स्तनपान कराने के बहाने शिशुओं को विषपान कराओ। जिससे सारे शिशु मृत्यु को प्राप्त कर लें। पूतना ने अनेक शिशुओं को विषपान कराकर मार दिया लेकिन जब वह कृष्ण के सामने उपस्थित हुई तो कृष्ण ने पूतना को पहचान लिया और उसका वध कर दिया। कृष्ण ने एक विशेष तरीके से स्तनपान करना प्रारंभ किया जिससे वह स्वयं ही शिकार हो मृत्यु को प्राप्त हुई। यह दिन फाल्गुन मास की पूर्णिमा का था। अतः इस खुशी में भी होली उत्सव मनाया जाने लगा।
आप सभी के लिए यह पहला भाग प्रस्तुत करने का प्रयास किया है... होली के संपूर्ण इतिहास को आपके समक्ष दो भागों में प्रकाशित करूँगा। आशा है आप सभी को होली जैसे विशेष पर्व को आत्मसात कर आनंद की अनुभूति हुई होगी और आगे अगले भागों में भी होगी... मिलते हैं अगले भाग के साथ... होली की शुभकामनाओं के साथ...
#HAPPY #HOLI

- आपका कम शब्दों का लेखक
(प्रमोद केसरवानी)

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