Posts

Showing posts from 2018

विश्राम को न दें विराम

Image
विश्राम को न दें विराम वर्तमान समय में एक अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द जिसे लोग अब स्मरण में नहीं रखते जबकि इस शब्द मात्र का स्मरण क्षणिक स्फूर्ति प्रदान तो कर ही देता है। सोचिए इस शब्द को ओढ़ लिया जाए तो कितनी चैतन्यता प्रदान करेगा। यह अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द है- विश्राम। विश्राम कौन नहीं चाहता। हम-आप, आप-सब, फिर भी सबने आज के भाग-दौड़ वाले वातावरण में इससे दूर होकर अपने जीवन को त्वरित वेग वाला यंत्र बना कर रख दिया है। यह शरीर रूपी यंत्र चलता तो बहुत तीव्र गति से है लेकिन यदि इसके औजारों और पुर्जों को आवश्यकतानुसार नियमित ईंधन नहीं दिया जाएगा तो जल्द ही इस शरीर रूपी यंत्र पर से आपका नियंत्रण खो जाएगा जो पुनः या तो वापस आसानी से नहीं प्राप्त होगा या वो गति हमेशा के लिए खो देंगे। इस उदाहरण के सार्थक अर्थ को समझते हुए हमें विश्राम के महत्व को समझना अतिआवश्यक है। हमारे शरीर द्वारा कार्य करने के दौरान गंवाई गयी ऊर्जा को पुनः को प्राप्त करने के लिए आवश्यकता होती है विश्राम की। वास्तव में चाहे वह श्वास लेना हो या सोचना या चलना-फिरना, बोलना, देखना या शारीरिक श्रम जैसे दौड़ना-भागना, सामान ...

No one is MAD

Image
पागल कोई नहीं है! आज एक जीवंत उदाहरण देखने को मिला। इस विषय को पिछले 10 वर्षों से महसूस कर रहा हूँ और समझ नही आ रहा था कि शुरुआत कहाँ से करूँ। आज कर रहा हूँ। मैं ये नही कहूंगा कि पागल कौन है लेकिन मुझे महसूस होता है कि पागल कोई नहीं है। जिन्हें हम पागल या कम दिमाग का व्यक्ति कहकर संबोधित करते हैं वो वास्तव में बिल्कुल हम जैसे ही हैं। यहां आगे जो बात आप पढ़ेंगे वह आपको अजीब-सी लग सकती है या इस विचार से असहमत भी हो सकते हैं। पिछले कई वर्षों से जब से स्वयं के होने का अहसास हुआ है लगभग तभी से अनेक ऐसे व्यक्तियों के दर्शन हुए जो हमारे मन मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ गए। ये व्यक्ति थे मंद बुद्धि के। लोग उन्हें पागल कहकर संबोधित करते हैं। 2,3 और 4 दिसंबर, 2018 की प्रातः लगातार तीन एक ऐसे ही व्यक्ति के दर्शन हुए प्रयागराज की धरती पर, बेली अस्पताल के पास की एक चाय की दुकान के पास जमीन में नाले की दीवाल का सहारा लिए मुंह में बीड़ी दबाए वह अपनी ही दुनिया में मस्त। मन में क्षणिक असंतोष उत्पन्न हुआ। फिर सोचने लगा ये तो हमसे अधिक खुश लगता है। उसको देखकर पूरा का पूरा दुःख मानो चला ही गया। इस व...

सन्तोषम् परम् सुखम्

Image
"सन्तोषम् परम् सुखम्" "संतोष"- एक ऐसा शब्द जो लगभग हर व्यक्ति इसका उपयोग करता है और लगभग प्रत्येक व्यक्ति इसकी तलाश करता है। यह बहुत महत्वपूर्ण शब्द है वर्तमान समय का। कभी सलाह के रूप में तो कभी आत्मानुभूति के रूप में इस शब्द का सामना करना पड़ता है फिर भी इसकी खोज जारी रहती है। "आपको तो संतोष ही नही है", "संतोष रखो! जो होगा सब ठीक होगा", आह! आज जाकर मुझे संतोष मिला है", "सिर्फ संतोष मिल जाये, अब और कोई इच्छा नहीं" आदि वाक्य अब रोज किसी न किसी से सुनने को मिलते हैं। एक पुराना वाक्य "सन्तोषम् परम् सुखम्" अक्सर सुनने को मिलता है, महसूस करने को मिलता है, आत्मसात करने को मिलता है। अच्छा भी लगता है। क्या संतोष प्राप्ति ही परमसुख है? बिल्कुल है क्योंकि जब हम किसी उद्देश्य विशेष को प्राप्त कर लेते हैं तो उस क्षण जो आनंद प्राप्त होता है वह किसी परमसुख से कम नहीं होता है। लेकिन आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि इस शब्द का प्रयोग केवल सकारात्मक दृष्टि से ही नहीं बल्कि नकारात्मक दृष्टि से भी हो रहा है। आप में से अनेक लोग ऐसे...

मुफ्त की सलाह : प्रकृति, संस्कृति या विकृति

Image
मुफ्त की सलाह : प्रकृति, संस्कृति या विकृति    पिछले कुछ महीने से प्रतिदिन देख रहा हूँ और विश्लेषण कर रहा हूँ कि मुफ्त की सलाह बहुत मिले परंतु कुछ प्राकृतिक लगा, कुछ संस्कारों से परिपूर्ण मिला और आश्चर्य तो तब अधिक हुआ जब  कुछ विकृतियों से भी ओतप्रोत मिला। खैर विकृति, प्रकृति और संस्कृति ये तीनो शब्द कहीं पढ़ने को मिला तो मुफ्त की सलाह को इन तीन शब्दों के साथ जोड़ा तो समझा कि इन्हीं तीन बिंदुओं के आसपास प्रत्येक चीज होती है।    सर्वप्रथम बात, मुफ्त के सलाह को प्रकृति रूप में देखने की। अक्सर आप में से अनेक लोगों को मुफ्त में सलाह मिला होगा। कभी तो सलाह बहुत अच्छी लगती है, तो हम खुश होकर उस विषय पर गंभीर चिंतन करने लगते हैं। लगता है बस इसी से जीवन संवर जाएगा। उसी ओर सोचते हुए हम उसकी ओर आगे बढ़ने लगते हैं। लेकिन अगले कुछ पल या दिनों या महीनों बाद फिर कोई आपका सगा आपको फिर कोई सलाह दे जाता है जिससे आपका मन पुनः विचलित हो जाता है और आप पुनः इस नई दिशा में सोचने लग जाते हैं। यहीं आपको संभलने की जरूरत है क्योंकि जैसा कि आपको पिछले लेख में एक सूत्र प्राप्त ...

मन का विचलित होना स्वाभाविक है

Image
मन का विचलित होना स्वाभाविक है   दुःख आएगा, यह तो तय है। यह भी सभी जानते हैं कि सौ प्रतिशत सुख नहीं हो सकता है क्योंकि हम कर्म बंधन से बंधे हैं। प्रतिक्षण ऐसा कृत्य हो जाता है जिसका सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है लेकिन हम मनुष्य हैं तो स्वाभाविक है कि जो चीज मन के अनुकूल हुई उसको ज्यादा अहमियत देते हैं चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। यह हमारे मन पर निर्भर करता है। (पिछले लेख में आपको सकारत्मक होने का एक सूत्र प्राप्त हुआ था)। कई कृत्य ऐसे भी होते हैं जिसका दूरगामी परिणाम मिलता है और हम सुख या दुख की अनुभूति करते हैं। यदि सुख की अनुभूति हुई तो खुशी और यदि दुख की अनुभूति हुई तो दुःखी। लेकिन यहां पर ही समझने वाला और संभलने वाला महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। जिस मनुष्य में दुःख को सुखपूर्वक व्यतीत करने का रहस्य पता है (पिछले लेख में यही चर्चा हुई थी) वह तो संभल जाएगा और यहां दुख की अनुभूति के बजाय यह सोचकर संतुलित हो जाएगा कि "कहीं न कहीं उस कृत्य में कुछ कमी रह गई होगी जिसका यह परिणाम प्राप्त हुआ।" लेकिन वहीं अन्य लोग दुःख में ग़मगीन हो जाएंगे या दुःख क...

ग़म जैसी कोई चीज नहीं...

Image
ग़म जैसी कोई चीज नहीं… खुश होना तो सभी चाहते हैं, लेकिन ग़म साथ छोड़ता ही नहीं है| क्यों? क्योंकि हम उसे ग़म समझते हैं| वास्तव में ये परिस्थितियां हैं जो कि हमें ख़ुशी और ग़म देते हैं| यदि हमारे मन के अनुकूल कोई घटना घटती है तो हम उसे ख़ुशी समझते हैं लेकिन जब हमारे मन के विपरीत कोई परिस्थिति बनी तो उसे हमने समझ लिया ग़म| इस संसार में कोई १०० प्रतिशत खुश या कोई भी १०० प्रतिशत ग़म में नहीं हो सकता है इसलिए कोशिश यह क्यों न किया जाये कि हम परिस्थितियों के अनुकूल होने के बजाय परिस्थितियों को ही अपने अनुकूल कर लें| यह भी हो सकता है कि अब अगर परिस्थितियों को अपने अनुकूल न कर पाए तो भी कोई चिंता की बात नहीं है क्योंकि उससे तब हम किसी और तरीके से मुकाबला कर पाएंगे | वह माध्यम है उसे भी "हम ख़ुशी ख़ुशी अपनाकर बिता दें" क्योंकि जो है तो वो है ही है उसे कोई बदल नहीं सकता| उसे बिताना या उसका मुकाबला करना जरुरी है | उसे बिताना कैसे है ? यह बहुत महत्वपूर्ण है |  अतः उसे हम ख़ुशी ख़ुशी बिता लें तो जिंदगी की राह आसान हो जाती है | साथ में हर पल- प्रति क्षण उस ईश्वर को या अपने माता-पिता का स...

शिक्षा में मजाक या मजाक में शिक्षा...

Image
शिक्षा में मजाक या मजाक में शिक्षा… शीर्षक को पढ़कर सोच रहे होंगे कि ये क्या लिख दिया? लेकिन ये सच है कि आज गांव के विद्यालयों में यही दो चीजें हो रही हैं। शिक्षा में मजाक और मजाक में शिक्षा चल रही है। शहरों के विद्यालयों की स्थिति के बारे में नही कह रहा हूँ क्योंकि वहां के परिवेश के मुझे अनुभव नही है। या ये भी हो सकता है कि जिन विद्यालयों के बारे में जनता हूँ, वहां का परिवेश देखकर मैं ऐसा कह रहा हूँ। बाकी पर मेरा कोई कटाक्ष नही है। खैर, बच्चे क्या पढ़ रहे हैं, कैसे पढ़ रहे हैं लगता है कि केवल प्रबंधक जी को ही चिंता है, किसी अन्य (शिक्षक) को तो कुछ तरीका आता ही नही है पढ़ाने का। शायद इसीलिए प्रतिदिन, प्रति बेला, प्रति कक्षा में घूम-घूमकर देखते हैं कि क्या पढ़ाया जा रहा है, कैसे पढ़ाया जा रहा है, साथ में कोई न कोई कमी निकालकर 100% टोकना ही टोकना है, और तो और वहीं बच्चों के सामने| यदि अध्यापक किताब के पैराग्राफ के अर्थ को बैठकर डेमो देते हुए बता रहा है तो कह दिया, "यहां से वहां देख लो कोई कुर्सी पर बैठा है जो आप बैठ गए, आप टेबल के ऊपर बैठकर या उसपर टिक कर खड़े होकर पढ़ाइए।...